जीवन कथाएँ >> मेरी भव बाधा हरो मेरी भव बाधा हरोरांगेय राघव
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कवि बिहारीलाल के जीवन पर आधारित रोचक उपन्यास...
एक
नीले आकाश में पक्षी दल के दल लौट चले। मटमैली छाया पहले छितराए बादलों में कसमसाती रही, फिर बैलों के गलों में लटकी घंटियों की गूंजती आवाज मिलकर, उड़ती हुई धूल पर लोटने लगी।
"होशियार!" भर्राए गले से कोई चिल्लाया।
लट्ठबंदों की हुंकार सुनाई दी।
"कौन है? कौन है? किसी ने कहा।
पेड़ों के पीछे सूरज डूब गया। अंधेरा छाने लगा। पक्षियों का कलरव अब बढ़ चला। हवा में एक सीरी-सी सिहरन व्यापने लगी।
वृद्ध हरलाल ने बहली के पास जाकर कहा, “क्यों, क्या बात है मालिक?"
बूढ़े के बाल सन-से सफेद थे।
पर्दा हटा और केशवराय ने झांककर कहा, “पीछे कैसा शोर हो रहा है?"
हरलाल ने कहा, “वही तो मैं कहूं कि बुन्देलखंड में भी जो अमन-चैन न होगा तो कहां होगा।"
"ग्वालियर के पीछे का जंगल भी हमारा कुछ न बिगाड़ सका।"
नानिगराम ने लंबी सांस ली। ग्वालियर! उसने सोचा। क्या वह फिर अपनी जन्मभूमि में जा सकेगा? मालिक ग्वालियर छोड़ आए तो वह भी आ गया।
“अभी कितनी दूरी है?" केशवराय ने धीरे से पूछा। फिर देखा। दूर तक पथ चला गया था। सूनी सांझ घिरती-घिरती रात बनती जा रही थी।
रथ आगे आ रहा था। पर्दा उठा और पीछे से एक लड़की ने झांका। वह सुन्दर थी। उसको झांकते देख एक किशोर अपना घोड़ा बढ़ा लाया। लड़की बोली, "भैया!"
पर्दे के पीछे से ऊंघता हुआ एक आठ वर्ष का गोरा-सा बालक चौंक उठा।
किशोर ने घोड़े पर बैठे-बैठे ही रथ के साथ चलते हुए कहा, “बिहारी क्या सो रहा है?"
"नहीं!" लड़की ने कहा।
मां मुस्कराई। उसने स्नेह से उस कोमल बालक की पीठ पर हाथ फेरा वह महीन अंगरखा पहने था, जिस पर ज़री का काम था। पांवों में चूड़ीदार पायजामा था। हाथों में सोने के कड़े थे। गले में सोने का कंठा।
"तो फिर क्या हो रहा है भीतर?" भैया ने छेड़ा।
“आया भैया!" बिहारी उठ खड़ा हुआ।
"अभी कहां जाता है भैया?" बहन ने टोका।
बिहारी बाहर कूद आया।
हरलाल ने खेमा वहीं बाहर डाल दिया।
तंबू तन गया।
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